दिव्य महाराष्ट्र मंडल

संक्राति पर काला परिधान... मराठा रणबाकुरों को सच्ची श्रद्धांजिल

लेखक- प्रसन्न निमोणकर

भगवान श्री सूर्यनारायण 14 जनवरी से उत्तरायण को प्रवेश कर जाएंगे। संपूर्ण भारत वर्ष में  इस अवसर पर मकर संक्रांति मनाई जाएगी। अलग-अलग प्रांतों में इसे अलग-अलग नामों से मनाया जाता है। जैसे लोहड़ी, बिहू, पोंगल, खिचड़ी पर्व, मकर चौला, उत्तरायण आदि। महाभारत काल में पितामह भीष्ण ने अपनी इच्छा मृत्यु के वरण के लिए इसी मकर संक्रांति की परीक्षा की थी। सनातन परंपरा में उत्सव के दौरान परिधान भी सुनिश्चित है। काले रंग के परिधान को सामान्यतः उत्सवों में वर्जित माना जाता है। अपितु मकर संक्रांति के उत्सव पर संपूर्ण महाराष्ट्र की महिलाएं और पुरुष काले रंग के परिधान में उत्सव मनाते है। आज हम इन्हीं काले परिधानों पर चर्चा करेंगे।

महाराष्ट्र की महिलाएं आज के दिन काले रंग के परिधानों का इस्तेमाल अपने पूर्वजों को नमन करने के लिए करती है। जिन्होंने आज से ठीक 261 वर्ष पहले 17 जनवरी 1761 के दिन अहमद शाह अब्दाली के साथ हुए पानीपत के तृतीय युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी थी। सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में मराठों की सेना ने 14 मार्च 1760 को पुणे से उत्तर की ओर कूच किया था। मराठों का अंतिम लक्ष्य दिल्ली पर विजय पाना था। इस कूच को रायल मराठा मार्च भी कहा जाता है। इस कूच में 45 हजार मराठा सैनिक 10 हजार मारदी सैनिक और लगभग 2 लाख गैरसैनिक एवं तीर्थयात्री शामिल थे। उधर उत्तर में आक्रमणकारी अहमद शाह अब्दाली अपनी सामरिक क्षमता का विस्तार कर रहा था। मार्ग में सभी राजे-रजवाड़े को अपने अभियान में सम्मिलित करते और मुगलों से अलग-अलग स्थानों पर युद्ध लड़ते और उन्हें पराजित करते हुए सदाशिव राव भाऊ ने अपने भतीजे विश्वास राव और मल्हाराव होल्कर, महादजी शिंदे, रानोजी भोइते, इब्राहिम खान गादरी, जनकोजी शिंदे, शमशेर बहादूर, दामाजी गायकवाड़, यशवंतराव पवार जैसै शौर्यवान योद्धाओं के साथ 14 जनवरी 1761 को पानीपत में अहमद शाह अब्दाली को ललकारा। पानीपत की तीसरी लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध इस युद्ध में रोहिंग्या नजीब उद्रौला और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने अफगानों को साथ दिया।

अब्दाली के 45 हजार आक्रमणकारी अफगानों की क्रूरता और 30 हजार रोहिग्यों एवं 10 हजार अवध के देशद्रोह पर मराठों का देशप्रेम और शौर्य भारी पड़ने लगा। मुगल सेना को मराठों की अश्वसेना और तोफदल ने भारी नुकसान पहुंचाया। 50 हजार से अधिक मुगल सैनिक युद्ध में मारे गए। मराठों की सैन्य सहायता और रसद आपूर्ति के मार्ग को रोहिल्लों ने अवरूद्ध कर दिया। परिणामतः युद्ध में मराठों की पराजय हुई। लगभग 40 हजार मराठा सैनिक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। क्रूर अफगानों ने 50 हजार गैर सैनिकों एवं कूच में साथ चलते सहायकों तथा तीर्थयात्रियों का नरसंहार किया। हजारों मराठा लापता हो गए। सदाशिव राव भाऊ एवं विश्वास राव ने भी अपने प्राणों की आहूति दी। किसी युद्ध में एक दिन में 1 लाख से अधिक सैनिकों की मृत्यु का यह एकमेव उदाहरण है। पेशवा बालाजी बाजीराव का पैठन से युद्ध में सम्मिलित होने के लिए देर से प्रस्थान करना, मराठों की सेना में सम्मिलित कुछ मुसलमान सैनिकों (गादरी) का स्वरक्षा के लिए अपनी पगड़ी बदल लेना और तोफदल को अवध सैनिकों द्वारा निष्क्रिय कर दिया जाना तथा रसद व सैन्य सहायत का अवरूद्ध होना इस पराजय के प्रमुख कारण बने। युद्ध जीतकर भी अब्दाली भारत पर शासन करने के लिए अपने मंसूबे को पूरा न कर सका। इस युद्ध से हुई आर्थिक और सामरिक क्षति से वह कभी उबर न सका और हमेशा कि लिए अफगानिस्तान लौट गया मराठा हारकर भी जीत गए।

मातृभूमि की रक्षा के लिए आक्रमणकारियों के विरुद्ध भारत के इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई थी। उन रणबाकुरों को शत-शत नमन। काला परिधान इस उत्सव के अवसर पर 14 जनवरी 1761 को स्मरण करने का यथोचित प्रतीक है।