रायपुर

‘स्त्री-2023 सृजन और सरोकार’, नए दौर में स्त्रियां रच रही हैं अपनी दुनिया का साहित्य

रायपुर। छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी संस्कृति परिषद की ओर से दो दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम ‘स्त्री-2023 सृजन और सरोकार’ के अंतर्गत दूसरे दिन न्यू सर्किट हाउस सिविल लाइंस स्थित कन्वेंशन हॉल में देशभर से आये रचनाकारों, समीक्षकों ने आज भी विचारोत्तेजक चर्चा की। जिसमें  स्त्री विमर्श से जुड़े विभिन्न मसलों पर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में वक्ताओं ने अपने विचार रखें। शाम के सत्र में कविता पाठ ने भी दर्शकों को बांधे रखा।
 
सुबह पहले सत्र में ‘साहित्य में स्त्री और स्त्री का साहित्य’ विषय पर वक्ताओं ने अपनी बात रखी। जिसमें मूल रूप से यह विचार उभर कर आया कि पहले पुरुष के रचे साहित्य से स्त्रियां व्याख्यायित होती थीं, अब नया दौर है इसमें स्त्रियां अपनी दुनिया का साहित्य खुद रच रही हैं।


 
आशीष मिश्र ने समकालीन कविता में स्त्री और स्त्री की समकालीन कविता पर वक्तव्य की शुरुआत की। उन्होंने आधुनिक स्त्री कविताओं को चार प्रस्थान बिंदुओं में बांट कर कहने के विषय के विकास को स्पष्ट किया।

पूनम वासम (बीजापुर) और जंसिता केरकेट्टा (झारखंड) की कविताओं में प्रकृति के स्त्री के साथ तारतम्य से जुड़े प्रतिमानों और संबंधों को उजागर करती कविताओं ने अपनी पहचान बनाई। पूनम अरोड़ा ने स्त्री दृष्टि या पुरुष दृष्टि के बजाय स्त्री भाषा और पुरुष भाषा के अनुसार साहित्य के रचे जाने को ही महत्वपूर्ण बताया।

प्रिया वर्मा ने भारत में विक्टोरिया युग में प्रारंभ हुए स्त्री शिक्षा के समय के एक अच्छी स्त्री होने के मापदंडों को आज भी मध्यवर्ग की स्त्रियों में लागू होने की बात करते हुए ग्रामीण और शहरी स्त्रियों की अलग अलग समस्याओं का जिक्र किया।
 

हेमलता माहेश्वर ने स्त्री के रूप में लिखना साहित्य में एक राजनैतिक हस्तक्षेप मानते हुए हाशिये पर खड़े लोगों की अनसुनी आवाजों को सुनने के लिए साहित्य के लिए जरूरी बताया। उन्होंने कहा कि पाली से हिंदी में विमल कीर्ति के अनुवाद आने के बाद सुमंगला माता जैसी कृतियों से स्त्री आवाजों को बाद में चिन्हित किया गया।

फुले दंपति और डॉ भीमराव अंबेडकर के प्रयासों से महिलाओं के स्वरों को आवाज़ मिली। उन्होंने मुद्दा उठाया कि जंसिता केरकेट्टा जैसी कलमकारों की रचनाओं में ’मेरा गांव घर जिधर है शासन की बंदूक उधर है’ जैसे  सवाल अब भी क्यों है..?

डॉ रोहिणी अग्रवाल ने कहा कि आज भी जेंडर आधार पर महिलाओं उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। साहित्य हो या क्रिकेट भारतीय स्त्रियों को प्रोत्साहन नही मिलता। साहित्य जगत भी अपनी समकालीन स्त्री रचनाकारों को कहाँ, कैसे दर्ज करता है? 1882 की ’सीमान्तनी उपदेश’ जैसी किताबों को इतिहास से विलुप्त करके उसी समय में आयी ’बंग महिला’ को सुविधाजनक होने के कारण दर्ज किया गया।